हम्मीरदेव चौहान (गुगल से) |
"याद हमे है हल्दीघाटी और हठी हम्मीर "
राव हम्मीरदेव चौहान रणथम्भौर " रणतभवँर " के शासक थे । ये पृथ्वीराज चौहान के वंशज थे। इनके पिता का नाम जैत्र सिंह था। वे इतिहास मे "हठी हम्मीर " के नाम से प्रसिद्ध हुए है।
जब हम्मीर वि.सं. 1339 मे रणथम्भौर (रणतभवँर ) के शासक बने तब रणथम्भौर के इतिहास का एक नया अध्याय प्रारंभ होता है ।यह रणथम्भौर के चौहान वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली एवं महत्वपूर्ण शासक था । इसने अपने बाहुबल से विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिया था ।
जलालुद्दीन खिलजी ने वि.सं. 1347 मे रणथम्भौर पर आक्रमण किया । सबसे पहले उसने छाणगढ (झाँझन) पर आक्रमण किया । मुस्लिम सेना ने कडे प्रतिरोध के बाद इस दुर्ग पर अधिकार किया । तत्पश्चात मुस्लिम सेना रणथम्भौर पर आक्रमण करने के लिए आगे बढी। उसने दुर्ग पर अधिकार करने के लिए आक्रमण किया लेकिन हम्मीरदेव के नेतृत्व मे चौहान वीरो ने सुल्तान को इतनी हानि पहुँचाई ,कि उसे विवश होकर दिल्ली लौट जाना पड़ा ।इस आक्रमण के दो वर्ष बाद मुस्लिम सेना ने रणथम्भौर पर आक्रमण किया, लेकिन वे इस बार भी पराजित होकर दिल्ली वापस आ गए ।
वि.स.1353 मे सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी की हत्या करके अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली का सुल्तान बना। वह सम्पूर्ण भारत को अपने शासन के अन्तर्गत लाने की आकांक्षा रखता थां। हम्मीरदेव के नेतृत्व मे रणथम्भौर के चौहानो ने अपनी शक्ती को काफी सुदृढ बना लिया और राजस्थान के विस्तृत भू-भाग पर अपना शासन स्थापित कर लिया था । अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली के निकट चौहानो की बढती हुई शक्ति को नही देखना चाहता था । इसलिए संघर्ष होना अवश्यंभावी था।
ई.स. 1296 मे अलाउद्दीन की सेना ने गुजरात पर आक्रमण किया था । वहाँ से लुट का बहुत सा धन दिल्ली ला रहे थे। मार्ग मे लुट के धन के बँटवारे को लेकर कुछ सेनानायको ने विद्रोह कर दिया तथा विद्रोही सेनानायक राव हम्मीरदेव की शरण मे रणथम्भौर चले गए । ये सेनानायक मीर मुहम्मद शाह और कामरू थे । सुल्तान अलाउद्दीन ने इन विद्रोहियो को सौप देने की मांग राव हम्मीरदेव से की ,हम्मीर ने उसकी यह मांग ठुकरा दी । क्षत्रिय धर्म के सिद्धांतो का पालन करते हुए राव हम्मीरदेव ने, शरण मे आय हुए सैनिको को नही लौटाया । शरण मे आय हुए कि रक्षा करना अपना कर्तव्य समझा । इस बात पर अलाउद्दीन क्रोधित होकर रणथम्भौर पर युद्ध के लिए तैयार हुआ ।
अलाउद्दीन की सेना ने सर्वप्रथम छाणगढ पर आक्रमण किया ।उनका यहाँ आसानी से अधिकार हो गया । छाणगढ पर मुसलमानो ने अधिकार कर लिया है, यह सुनकर हम्मीरदेव ने रणथम्भौर से सेना भेजी। चौहान सेना ने मुस्लिम सैनिको को परास्त कर दिया ।मुस्लिम सेना पराजित होकर भाग गई,चौहानो ने उनका लुटा हुआ धन व अस्त्र शस्त्र लूट लिए । वि.सं.1358 मे अलाउद्दीन खिलजी ने दुबारा चौहानो पर आक्रमण किया । छाणगढ मे दोनो सेनाओ के मध्य भयंकर युद्ध हुआ । इस युद्ध मे हम्मीरदेव स्वयम् युद्ध मे नही गया था।वीर चौहानो ने वीरतापूर्ण युद्ध किया लेकिन विशाल मुस्लिम सेना के सामने कब तक टिकते। अन्त मे सुल्तान का छाणगढ पर अधिकार हो गया।
तत्पश्चात मुस्लिम सेना रणथम्भौर की तरफ बढने लगी। तुर्की सेनानायको ने हम्मीरदेव के पास सुचना भिजवाई, कि हमे हमारे विद्रोहियो को सौप दो,जिनको आपने शरण दे रखी है ।हमारी सेना वापस दिल्ली लौट जाएगी । लेकिन हम्मीरदेव अपने वचन पर दृढ था । उसने शरणागतो को सौपने और अपने राज्य से निर्वासित करने से स्पष्ट मना कर दिया ।तुर्की सेना ने रणथम्भौर पर घेरा डाल दिया ।तुर्की सेना ने नुसरत खाँ और उलुग खाँ के नेतृत्व मे रणथम्भौर पर आक्रमण किया । दुर्ग बहुत ऊँचे पहाड पर होने के कारण शत्रु का वहाँ पहुँचना बहुत कठिन था । मुस्लिम सेना ने घेरा कडा करते हुए आक्रमण किया लेकिन दुर्ग रक्षक उन पर पत्थरो , बाणो की बौछार करते, जिससे उनकी सेना का बहुत नुकसान होता था। मुस्लिम सेना का इस तरह घेरा बहुत दिनो तक चलता रहा लेकिन उनका रणथम्भौर पर अधिकार न हो सका ।
अलाउद्दीन ने दुबारा अपना दुत हम्मीरदेव के पास भेजा की हमे विद्रोही सैनिको को सौप दो, हमारी सेना वापस दिल्ली लौट जाएगी । हम्मीरदेव हठ पूर्वक अपने वचन पर दृढ था।बहुत दिनो तक मुस्लिम सेना का घेरा चलता रहा और चौहान सेना मुकाबला करती रही । अलाउद्दीन को रणथम्भौर पर अधिकार करना मुश्किल लग रहा था । उसने छल कपट का सहारा लिया । हम्मीरदेव के पास सन्धि का प्रस्ताव भेजा जिसको पाकर हम्मीरदेव ने अपने आदमी सुल्तान के पास भेजे । उन आदमीओ मे एक सुर्जन कोठ्यारी ( रसद विभाग की व्यवस्था करने वाला ) व कुछ रोना नायक थे । अलाउद्दीन ने उन्हे लोभ लालच देकर अपनी तरफ मिलाने का प्रयास किया । इनमे से कुछ लोग गुप्त रूप से सुल्तान की तरफ हो गए।
दुर्ग का घेरा बहुत दिनो से चल रहा था, जिससे दुर्ग मे रसद आदि की कमी हो गई । दुर्ग वालो ने अन्तिम निर्णायक युद्ध का विचार किया । राजपुतो ने केशरिया वस्त्र धारण कर शाका किया । राजपूत सेना ने दुर्ग के दरवाज़े खोल दिए। भीषण युद्ध करना प्रारंभ किया । दोनो पक्षो मे आमने सामने का युद्ध था। एक ओर संख्या बल मे बहुत कम राजपूत थे। तो दुसरी ओर सुल्तान की कई गुणा बड़ी सेना, जिनके पास पर्याप्त युद्धादि सामग्री और रसद थी । राजपुतो के पराक्रम के सामने मुसलमान सैनिक टिक नही सके वे भाग छूटे । भागते हुए मुसलमानो सैनिको के झंडे राजपुतो ने छीन लिए व वापस राजपुत सेना दुर्ग की ओर लौट पडी। दुर्ग पर से रानियों ने मुसलमानो के झंडे को दुर्ग की ओर आते देखकर समझा की राजपुत हार गए अतः उन्होंने जौहर कर अपने आपको अग्नि को समर्पित कर दिया । किले मे प्रवेश करने पर जौहर की ज्वाला को देखकर अपनी भुल का अहसास हुआ । उसने प्रायश्चित करने हेतु किले मे स्थित शिव मंदिर पर अपना मस्तक काट कर शंकर भगवान के शिवलिंग पर चढ़ा दिया । अलाउद्दीन को जब इस घटना का पता चला तो उसने लौट कर दुर्ग पर कब्जा कर दिया ।
"स्यंघ गमन सापुरसि वचन, केळि फळे यक बार।
त्रिया तेल हमीर हठ, चढै न दूजी बार ।।"
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जवाब देंहटाएंHey keep posting such good and meaningful articles.
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